विशेष >> छोटा सा ब्रेक छोटा सा ब्रेकविष्णु नागर
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‘छोटा-सा ब्रेक’ में समसामयिक घटनाओं पर छोटे-छोटे व्यंग्य संकलित हैं....
विष्णु नागर अपनी कविताओं के लिए जितने जाने जाते हैं, अपने व्यंग्यों के
लिए भी कम नहीं जाने जाते। ‘छोटा-सा ब्रेक’ में समसामयिक घटनाओं पर छोटे-छोटे व्यंग्य संकलित हैं, जो उन्होंने (दैनिक) ‘नई दुनिया’ में प्रतिदिन
‘गरमागरम’ स्तंभ के अंतर्गत लिखे थे और जिन्हें
पाठकों द्वारा बहुत पसंद किया गया था। अधिकतर पठाक तो अखबार खोलकर पहले
‘गरमागरम’ स्तंभ ही पढ़ते थे। जैसा कि आप देखेंगे, ये
व्यंग्य-आलेख भले ही समसामयिक घटनाओं-चरित्रों पर हों, मगर इनमें समय की
सीमा में रहकर भी उस सीमा के पार जाया गया है। एक सच्चा रचनाकार यही करता
है, इसलिए ये व्यंग्य हमारा खयाल है कि कभी पुराने नहीं पड़ेंगे। इसके
अलावा ये व्यंग्य उस समय-विशेष का राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक दस्तावेज
भी हैं, एक ऐसा दस्तावेज, जो सत्ताधीशों की तरफ से नहीं, बल्कि साधारण
जनता की तरफ से लिखा गया है, जिसमें उसके तमाम दुःख-तकलीफ दर्ज हैं, उसका
व्यंग्य-विनोद भाव अंकित है। ये व्यंग्य परसाई और शरद जोशी दोनों की
परंपरा में हैं। उस परंपरा में हैं और अपनी एक अलग परंपरा भी ये बनाते
हैं। इनमें शैलियों का अद्भुत वैविध्य है, भाषा की अनोखी सहजता और प्रवाह
है। इन्हें पढ़कर नहीं लगता कि व्यंग्य करने के नाम पर शाब्दिक खिलवाड़ की
गई है। ये असली चिंता से उपजे व्यंग्य-आलेख हैं। इन्हें पढ़कर समाज को
देखने-परखने की एक नई—उर्जस्वित दृष्टि भी मिलती है, मात्र
हलका-फुलका मनोरंजन नहीं होता, जैसा कि सामान्यतः व्यंग्य आजकल करते पाए
जाते हैं। कैसे गंभीर से गंभीर बात को, जटिल से जटिल विषय को, सहजता-सरलता
और व्यंग्यात्मकता से उठाया जाए, इस बात का उदाहरण बनते हैं ये व्यंग्य।
इन्हें पढ़कर लगेगा कि व्यंग्य की मौजूदा स्थिति निराश होने की नहीं, फिर
से उत्साहित होने की जरूरत है।
जलाओ भाई, सब जलाओ
जलाओ भाई, सब जलाओ। कश्मीर जलाओ, जम्मू जलाओ। लद्धाख को शांत छोड़ दिया, यही क्या तुम्हारी कम मेहरबानी है वरना कायदे से तो जम्मू-कश्मीर राज्य
में यह भी शामिल है ! कभी तुम गुजरात जलाते हो, कभी उड़ीसा। कभी अहमदावाद
जलाते हो, कभी जयपुर। जब तुम राम के नाम पर पुरा देश जला सकते हो तो भोले
भंडारी शिव के नाम पर जम्मू-कश्मीर क्यों नहीं जला सकते ! इसका तुम्हें
पूरा अधिकार है। यह तुम्हारा भी तो देश है ! जब इतने साल से कश्मीर जल रहा
है तो फिर जम्मू क्यों न जले ? इस देश को जलाने का सबको बराबर का अधिकार
है। इसका स्वत्वाधिकार किसी एक समुदाय, एक जाति, एक धर्म के पास क्यों हो
? अगर आरक्षण के नाम पर देश जल सकता है, तो क्षेत्रीयता के नाम पर भी उसे
जलाने में क्या कठिनाई है ? अगर धर्म के नाम पर देश जल सकता है तो फिर
जाति ने ही आखिर क्या बिगाड़ा है ? धर्म तो फिर भी आदमी बदल सकता है मगर
जाति नहीं !
और देश जले, इसमें आखिर बुराई भी क्या है ? एक तरह से तो यह देश को अग्निपरीक्षा का अवसर देना है। देश जलेगा, तभी तो एक दिन कुंदन की तरह वह निखरेगा ! अगर सीता आग में जलकर अपनी पवित्रता साबित कर सकती है तो देश को अपनी एकता-अखंडता सिद्ध करने के लिए जलकर दिखाने में झिझकना क्यों चाहिए ? अगर देश अपनी एकता-अखंडता को कायम नहीं भी रख पाता है तो भी दिक्कत क्या है ? कम से कम जलाने वालों को तो काम मिल रहा है ! वे तो बेरोज़गार नहीं हैं ! और जब जलाने वाले रहेंगे, तो बुझाने वालों की भी तो कद्र होगी, उन्हें भी अपनी प्रतिक्षा को साबित करने का मौका मिलेगा ! और जब दिल जल सकते हैं तो देश क्यों नहीं ? जहाँ दहेज के लिए नित्यप्रति औरतों को जलाया जा सकता है, वहाँ ज़मीन के एक टुकड़े के लिए किसी राज्य के दोनों सिरों पर आग लगे तो इसमें आश्चर्य भी क्या ? धर्मांतरण रोकने के लिए उड़ीसा जलता रहे, इसमें ताज्जुब क्या ? और देश कहीं न कहीं, कभी न कभी जलता न रहा तो लोग लाशों के जलने की दुर्गंध को भूल जाएँगे, मकानों के जलने से निकलने वाली आसमान छूती आग को तापना भूल जाएँगे ! मुसीबत में फँसे लोगों को लूटना, मजबूर औरतों से बलात्कार करना भूल जाएँगे ! जान बचाकर भागते लोगों की चूख-पुकार भूल जाएँगे ! देश विभाजन और गुजरात की आग को भूल जाएँगे ! खतरा तो यह भी है कि कई वर्षों तक कहीं कोई आग नहीं लगी, तो यहाँ के लोग अपने देश को भी भूल जाएँगे !
और देश जले, इसमें आखिर बुराई भी क्या है ? एक तरह से तो यह देश को अग्निपरीक्षा का अवसर देना है। देश जलेगा, तभी तो एक दिन कुंदन की तरह वह निखरेगा ! अगर सीता आग में जलकर अपनी पवित्रता साबित कर सकती है तो देश को अपनी एकता-अखंडता सिद्ध करने के लिए जलकर दिखाने में झिझकना क्यों चाहिए ? अगर देश अपनी एकता-अखंडता को कायम नहीं भी रख पाता है तो भी दिक्कत क्या है ? कम से कम जलाने वालों को तो काम मिल रहा है ! वे तो बेरोज़गार नहीं हैं ! और जब जलाने वाले रहेंगे, तो बुझाने वालों की भी तो कद्र होगी, उन्हें भी अपनी प्रतिक्षा को साबित करने का मौका मिलेगा ! और जब दिल जल सकते हैं तो देश क्यों नहीं ? जहाँ दहेज के लिए नित्यप्रति औरतों को जलाया जा सकता है, वहाँ ज़मीन के एक टुकड़े के लिए किसी राज्य के दोनों सिरों पर आग लगे तो इसमें आश्चर्य भी क्या ? धर्मांतरण रोकने के लिए उड़ीसा जलता रहे, इसमें ताज्जुब क्या ? और देश कहीं न कहीं, कभी न कभी जलता न रहा तो लोग लाशों के जलने की दुर्गंध को भूल जाएँगे, मकानों के जलने से निकलने वाली आसमान छूती आग को तापना भूल जाएँगे ! मुसीबत में फँसे लोगों को लूटना, मजबूर औरतों से बलात्कार करना भूल जाएँगे ! जान बचाकर भागते लोगों की चूख-पुकार भूल जाएँगे ! देश विभाजन और गुजरात की आग को भूल जाएँगे ! खतरा तो यह भी है कि कई वर्षों तक कहीं कोई आग नहीं लगी, तो यहाँ के लोग अपने देश को भी भूल जाएँगे !
(3 सितंबर, 2008)
स्थिति नियंत्रण में है
उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का यह बयान पढ़कर तसल्ली-सी मिली कि
कंधमाल में स्थिति अब नियंत्रण में है। अब तक 16 मारे गए, कोई बात नहीं !
डर के मारे अपनी जान बचाने के लिए हज़ारों गरीब ईसाई जंगलों की तरफ भाग
गए, कोई बात नहीं ! उड़ीसा का नाम बदनाम हुआ कि वहाँ अल्पसंख्यक सुरक्षित
नहीं, कोई बात नहीं ! 558 घर और 17 गिरजाघर जलाकर खाक कर दिए गए, कोई बात
नहीं ! लेकिन आठ दिन बाद ही सही; स्थिति इतनी तो नियंत्रण में आ ही गई है
कि महज 80 घर और जलाए गए !
देश में हर कहीं स्थिति को अब नियंत्रण से बाहर होने अच्छी तरह आ गया है। हर दूसरे-तूसरे दिन, कई-कई बार तो प्रतिदिन स्थिति नियंत्रण से बाहर चली जाती है। मुख्यमंत्रीगण अब इससे चिंतित नहीं होते, क्योंकि स्थिति को नियंत्रण से बाहर होना आता है तो नियंत्रण में आना भी खुद-ब-खुद आता है। उसके नियंत्रण में आते ही मुख्यमंत्रीगण चहक उठते हैं, क्योंकि उनके लिए इसका श्रेय लेने का समय आ चुका है। स्थिति नियंत्रण में ही रहे तो जनता और मुख्यमंत्री दोनों बोर होने लगते हैं कि उनके राज्य में कुछ हो नहीं रहा है, ‘प्रगति’ तो बिलकुल नहीं हो रही है। तब जनता स्थिति को नियंत्रण से बाहर ले आती है और मुख्यमंत्री को अवसर देती है कि वह स्थिति को नियंत्रण में ले आएँ। इससे दोनों को लगता है कि कुछ हुआ है, हमारा राज्य देश तथा विदेशों में चर्चा के केंद्र बना है। कहा है न किसी शायर ने, बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा ? ज़रूर होगा। बदनामी तो दो दिन की होती है, बाकी दिन तो नाम ही नाम होता है ! संजीव नंदा अपनी बीएमडब्ल्यू कार से छह लोगों को न मारता तो उसे कौन जानता ? आज लोगों को उनके नाम नहीं पता जो मारे गए, लेकिन जिसने मारा, उसका नाम हर जुबान पर है ! किसी दिन संजीव नंदा सज़ा भुगतकर शान से बाहर आएगा और दिल्ली के हाई सर्किल में ‘सेलिब्रिटी’ बनकर घूमेगा और अंग्रेजी के अखबार शान से उसकी तस्वीर छापेंगे !
देश में हर कहीं स्थिति को अब नियंत्रण से बाहर होने अच्छी तरह आ गया है। हर दूसरे-तूसरे दिन, कई-कई बार तो प्रतिदिन स्थिति नियंत्रण से बाहर चली जाती है। मुख्यमंत्रीगण अब इससे चिंतित नहीं होते, क्योंकि स्थिति को नियंत्रण से बाहर होना आता है तो नियंत्रण में आना भी खुद-ब-खुद आता है। उसके नियंत्रण में आते ही मुख्यमंत्रीगण चहक उठते हैं, क्योंकि उनके लिए इसका श्रेय लेने का समय आ चुका है। स्थिति नियंत्रण में ही रहे तो जनता और मुख्यमंत्री दोनों बोर होने लगते हैं कि उनके राज्य में कुछ हो नहीं रहा है, ‘प्रगति’ तो बिलकुल नहीं हो रही है। तब जनता स्थिति को नियंत्रण से बाहर ले आती है और मुख्यमंत्री को अवसर देती है कि वह स्थिति को नियंत्रण में ले आएँ। इससे दोनों को लगता है कि कुछ हुआ है, हमारा राज्य देश तथा विदेशों में चर्चा के केंद्र बना है। कहा है न किसी शायर ने, बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा ? ज़रूर होगा। बदनामी तो दो दिन की होती है, बाकी दिन तो नाम ही नाम होता है ! संजीव नंदा अपनी बीएमडब्ल्यू कार से छह लोगों को न मारता तो उसे कौन जानता ? आज लोगों को उनके नाम नहीं पता जो मारे गए, लेकिन जिसने मारा, उसका नाम हर जुबान पर है ! किसी दिन संजीव नंदा सज़ा भुगतकर शान से बाहर आएगा और दिल्ली के हाई सर्किल में ‘सेलिब्रिटी’ बनकर घूमेगा और अंग्रेजी के अखबार शान से उसकी तस्वीर छापेंगे !
(4 सितंबर, 2008)
भगवान् ही बचाएँगे देश
मैं सुप्रीम कोर्ट की इस बात से कतई सहमत नहीं हूँ कि देश को भगवान भी
नहीं बचा सकता ! भगवान् पर हम भारतवासियों की आस्था इतनी कमजोर होती तो
देश की यह हालत हम कतई नहीं होने देते। लेकिन हमें मालूम है कि हम इस देश
को कितने ही गहरे गड्ढे में उठाकर फेंक दें, वह ऊपर वाला इसे बचा ही लेगा।
उसे अगर इस देश को बचाने के लिए फिर से अवतार लेना पड़ा तो भी वह अवश्य
लेगा। देश का इतिहास इस बात का गवाह है कि कई आए और सैकड़ों साल तक इस देश
पर राज्य करके चले गए, इसे लूटकर चले गए, यहाँ कत्लेआम करके चले गए, मगर
यह देश वहीं का वहीं रहा। तब नहीं बिगड़ा सर जी, तो अब क्या बिगड़ेगा ?
पहले तो विदेशी भी बिगाड़ते थे, अब तो सिर्फ हमीं बिगाड़ते हैं ! तो हम
अकेले बिगाड़कर भी आखिर कितना बिगाड़ लेंगे ! सर जी, देश केवल
कानून-व्यवस्था ही तो नहीं है, क्लर्क और अफसर ही तो नहीं है और ये भी
आखिर कितना लूटेंगे, कितना खसोटेंगे, कितना खाएँगे-पीएँगे, स्विस बैंक में
भी आखिर कितना ले जाएँगे, इसलिए इन बेचारों को खाने दो !
खाना-पीना तो सर जी, वैसे भी सेहत के लिए बहुत फायदेमंद होता है। सबकी सेहत न बने तो सही, कुछ की तो बने ! इसलिए सर जी, अति धार्मिक आस्था के इस युग में आपकी ओर से भगवान् में ऐसी अनास्था दिखाना ठीक नहीं। इस देश को आज तक सिर्फ और सिर्फ भगवान् ने ही बचाया हुआ है, इस देश को और कोई बचा भी नहीं सकता। सरकार, संसद, प्रेस वगैरह तो बहाना है, देश तो केवल भगवान् को ही बचाना है !
खाना-पीना तो सर जी, वैसे भी सेहत के लिए बहुत फायदेमंद होता है। सबकी सेहत न बने तो सही, कुछ की तो बने ! इसलिए सर जी, अति धार्मिक आस्था के इस युग में आपकी ओर से भगवान् में ऐसी अनास्था दिखाना ठीक नहीं। इस देश को आज तक सिर्फ और सिर्फ भगवान् ने ही बचाया हुआ है, इस देश को और कोई बचा भी नहीं सकता। सरकार, संसद, प्रेस वगैरह तो बहाना है, देश तो केवल भगवान् को ही बचाना है !
(5 सितंबर, 2008)
बाढ़ के सुख
बरसात में हर साल बाढ़ बिहार और असम पर कृपालु अवश्य होती है। इस बार
बिहार पर उसने जितनी मेहरबानी की है, उतनी तो ईश्वर भी अपने भक्तों पर
नहीं करता ! बाढ़ आती है तो कुछ को अपने साथ ही बहा ले जाती है और कुछ के
घर, सामान और पशु साथ ले जाती है। लेकिन बाढ़ ले ही नहीं जाती, बहुत कुछ
दे भी जाती है। जैसे नेताओं को हवाई सर्वेक्षण का वीवीआई सुख दे जाती है।
जो बाढ़ का हवाई सर्वेक्षण करे, वही दरअसल नेता होता है, बाकी सब तो
कार्यकर्ता-टाइप नेता होते हैं। असहाय, भूखे और मौत के भय से काँपते लोगों
के ऐसे मार्मिक दृश्य को हेलिकॉप्टर से देखना हर किसी की किस्मत में नहीं
होता।
बाढ़ आती है तो कुछ दिन बाद ‘बाढ़-राहत’ भी साथ लाती है। इससे अफसरों के भाग्य खुल जाते हैं। कोसी की ऐसी अभूतपूर्व बाढ़ हो तो बड़े अफसरों की कई-कई पीढ़ियाँ तर जाती हैं। बाढ़ आती है तो दबंगों के लिए लूटपाट करने और मजबूर औरतों से बलात्कार का ‘सुनहरा’ अवसर ले आती है। दुकानदारों को अनाप-शनाप मुनाफा कमाने का ‘अद्भुत’ अवसर दे जाती है। बाढ़ आती है तो विपक्ष को सरकार को कोसने का बढ़िया मौका दे जाती है। टी.वी. चैनलों के लिए टी.आ.पी. बढ़ाने का अवर्णनीय अवसर प्रकान कर जाती है। कैमरामैनों को अपनी कला के प्रदर्शन का अनोखा चांस दे जाती है। अखबार वालों को नकली आँसू बहाने का अविस्मरणीय मौका दे जाती है।
बाढ़ आती है तो उन लोगों के लिए खुशी का त्यौहार ले आती है, जो गरीबों की बढ़ती आबादी का गम पाँचसितारा होटलों में शराब पीकर गलत करते रहते हैं। बाढ़ आती है तो गरीबों को दुःख सहन करने की पी-एच.डी. की डिग्री दे जाती है। बाढ़ आती है तो ज़िंदगी से अजिज़ आ चुके थे, जो ईश्वर से प्रार्थना करते थे कि वह उन्हें उठा ले, उन्हें अपने साथ बहाकर उनकी इच्छापूर्ति का मौका दे जाती है। बाढ़ आती है तो बीमारियों का पिटारा खोल जाती है, जिसे जितनी बीमारी लेना हो खुले हाथ ले ले। बाढ़ आती है तो हम जैसे व्यंग्यकारों को बैठे-बिठाये लिखने का कच्चा माल दे जाती है, जिसे बढ़िया पकाकर हम पाठकों को खिलाते हैं और उनसे पूछते हैं कि क्यों गुरू, मज़ा आया कि नहीं आया !
बाढ़ आती है तो कुछ दिन बाद ‘बाढ़-राहत’ भी साथ लाती है। इससे अफसरों के भाग्य खुल जाते हैं। कोसी की ऐसी अभूतपूर्व बाढ़ हो तो बड़े अफसरों की कई-कई पीढ़ियाँ तर जाती हैं। बाढ़ आती है तो दबंगों के लिए लूटपाट करने और मजबूर औरतों से बलात्कार का ‘सुनहरा’ अवसर ले आती है। दुकानदारों को अनाप-शनाप मुनाफा कमाने का ‘अद्भुत’ अवसर दे जाती है। बाढ़ आती है तो विपक्ष को सरकार को कोसने का बढ़िया मौका दे जाती है। टी.वी. चैनलों के लिए टी.आ.पी. बढ़ाने का अवर्णनीय अवसर प्रकान कर जाती है। कैमरामैनों को अपनी कला के प्रदर्शन का अनोखा चांस दे जाती है। अखबार वालों को नकली आँसू बहाने का अविस्मरणीय मौका दे जाती है।
बाढ़ आती है तो उन लोगों के लिए खुशी का त्यौहार ले आती है, जो गरीबों की बढ़ती आबादी का गम पाँचसितारा होटलों में शराब पीकर गलत करते रहते हैं। बाढ़ आती है तो गरीबों को दुःख सहन करने की पी-एच.डी. की डिग्री दे जाती है। बाढ़ आती है तो ज़िंदगी से अजिज़ आ चुके थे, जो ईश्वर से प्रार्थना करते थे कि वह उन्हें उठा ले, उन्हें अपने साथ बहाकर उनकी इच्छापूर्ति का मौका दे जाती है। बाढ़ आती है तो बीमारियों का पिटारा खोल जाती है, जिसे जितनी बीमारी लेना हो खुले हाथ ले ले। बाढ़ आती है तो हम जैसे व्यंग्यकारों को बैठे-बिठाये लिखने का कच्चा माल दे जाती है, जिसे बढ़िया पकाकर हम पाठकों को खिलाते हैं और उनसे पूछते हैं कि क्यों गुरू, मज़ा आया कि नहीं आया !
(6 सितंबर, 2008)
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